रविवार, 20 जून 2010

उद्भव...
भाई सुभाष नीरव के सौजन्य से मेरा न जाने कब का जन्मा ब्लॉग अब अपनी मूक वधिर सुसुप्तावस्था से बाहर आने का अवसर पा रहा है.
अपने चारों और जो परिवेश और घटनाक्रम मैं देख रहा हूँ वह गहरा उद्वेग भरा मंथन छोड़ रहा है, और उसमें केन्द्रीय भूमिका राजनीति की है. सारे परिदृश्य को केवल राजनैतिक उपक्रम के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है और उसके मानवीय दुष्प्रभाव किसी का सरोकार नहीं हैं.

इस लिहाज़ से यह राजनीति प्राबल्य का संवेदनाशून्य दौर है, जिसके नाभिक के रूप में मैं लोकतंत्र के संवैधानिक स्वरूप को दोषी ठहराता हूँ, जो बहुमत को निर्णायक पैमाना मानता है लेकिन बहुमत जुटाने की किसी भी करतूत को अमान्य नहीं ठहरता. बहुमत ख़रीदा जाना, छीना जाना, ठगा जाना, यहाँ तक की गढ़ा जाना, संविधान इस सब को मौन स्वीकृति देता है. कानून एक से एक खरे हैं लेकिन कानून लागू करनें की नौकरशाही व्यवस्था संवैधानिक रूप से राजनीतिज्ञ लोगों की मुट्ठी में है, जो कभी ढीली नहीं होती. निरपराध को दंड मिलने की घटनाएं उतनी ही आम हैं जितनी अपराधियों के निर्द्वंद निर्भय छुट्टा घूमनें की. अपराधी या तो राजनीति में स्वयं हैं या राजनीति द्वारा पोषित हैं. इस प्रक्रिया नें न्यात पालिका को लगभग अपंग बना दिया है, जिस पर राजनीति काबिज़ है.

मेरे ब्लॉग का पहला कदम इसी त्रासद पक्ष को छूता है. प्रकाश झा की ताज़ा फिल्म "राजनीति" को मैंने संदर्भ रूप में चुना है, भले ही फिल्म के, कथ्य और देय के अतिरिक्त, किसी और पक्ष को मैंने नहीं उठाया है. इसी क्रम में मेरी कुछ कवितायेँ इस में हैं. नक्सलवाद आज के परिदृश्य में जैसा भुनाया जा रहा है, उसमें उसके उद्भव के महत्वपूर्ण घटक अनदेखे रह जा रहे हैं. उन्हीं घटकों को केंद्र में रख कर करीब दो दशक पहले 'सारिका' के कथा पीढी विशेषांक ५ में मेरी कहानी ' इसलिए' प्रकाशित हुई थी. उस कहानी को भी इस अंक में लाना मुझे ठीक लगा है.

मैं चाहूँगा कि इस ब्लॉग पर मुझे सुधी जन की राय टिप्पणी मिले. अभी करीब तीन अंकों तक मैं इस ब्लॉग को " नवजात, विचाराधीन" ही मानूंगा.

अब यह आपके हाथ में है.

अशोक गुप्ता
राजनीति - ब-नज़र प्रकाश झा
प्रकाश झा की फिल्म 'राजनीति' देखी और चुप रहना कठिन हो रहा है. ऐसा नहीं है की फिल्म अपने में बेमिसाल है,लेकिन फिल्म जो कुछ भी कहती है, वह न झूठ है न अतिरेक इसलिए हद दर्जे तक बेचैन करती है.

फिल्म का मूल अंतर्संवाद है कि राजनीति बेहद निर्मम, निष्ठुर और संवेदनाशून्य होती है. इसीलिए उसके चरित्र में छद्म, कुटिलता, मक्कारी, मिथ्याचार, बेहयापन और नरसंहार की सीमा तक हिंसा अपना सहज घर बना पाती है. राजनीति के परिदृश्य में रिश्ते , यहाँ तक कि जन्म और खून के रिश्ते भी कोई अर्थ नहीं रखते, केवल यथा समय उनको याद किया या भुलाया जाता है, उनका इस्तेमाल किया जाता है.

राजनीति का एक मात्र लक्ष्य सत्ता होता है, जिसके लिए न कोई कीमत ज्यादा होती है, न ही कोई रास्ता वर्जित, चाहे वह काँटों भरा हो या खून सना. राजनीति कि कुशलता कीमत अदा करने के लिए जेब की खोज और खून बहाने के लिए बाहुबली के पोषण में भी मानी जाती है. भले ही आज के बाहुबली कल राजनीति के मंच पर माल्यार्पित होते हैं... राजनीति पर खुलनें वाली जेबें तो बहरहाल राजनीति का हिस्सा होती ही हैं.

राजनीति, जो भी उस से जुड़ता है, उसे अपने रंग में रंग लेती है. बाहुबली उसके पीछे पीछे चलते हुए संसद तक पहुँचते हैं और पूंजी देनेवाले सेठ उस से कई गुना वसूलने के हुनर में इतने लोलुप हो जाते हैं कि इस लालच में किसी की भी बलि देने में नहीं हिचकते, चाहे वह कोई उनका सगा ही क्यों न हो. इस तरह राजनीति पोषित पूंजीपति भी संबंधों को केवल इस्तेमाल करना सीख जाते हैं.

प्रकाश झा बताते हैं कि राजनीति इस तरह पूरी तरह अमानवीय होती है, लेकिन राजनीति का एक अबूझ चेहरा और भी है.

अपनी आदिमूल स्थापना में राजनीति जन सेवा का पर्याय है और इसके लिए निस्वार्थवृति तथा त्याग भाव के साथ साथ जनता का दुःख दर्द समझने की सहज संवेदना भी चाहिए. यह तो बेमेल बात है, लेकिन नहीं, राजनीति उस छद्म नाट्य शिल्प से पूरी तरह लैस होती है और उसका यह कौशल मंच से इतनी चकाचौंध के साथ व्यक्त होता है कि यातानाग्रस्त जनता मन्त्र मुग्ध हो कर, सम्मोहित हो कर समर्पित हो जाती है और राजनीति को ढोता हुआ मंच राजनीति के खून से रंगे हाथ और मुंह से आती हुई नर मांस की गंध छिपा ले जाता है.

इस तरह, कुटिल और छद्म चरित्र वाली राजनीति बाहुबलियों और पूंजीपतियों के कन्धों पर चढ़े साल दर साल, पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है... यह सारांश प्रकाश झा पूरी तरह दिखा पाने में भरपूर सफल हुए हैं.

लेकिन, प्रकाश झा की इस प्रस्तुति में रचनात्मकता क्या है..यह तो यथा स्थिति की तस्वीर भर है. ?

रचनात्मकता है.

पहले तो यह, कि दूर दराज़ यह प्रस्तुति, अपने यथार्थपरक आवेग से जनता के सम्मोहन को तोड़ती है... और राजनीति को जनता के जागरूक होने से उत्पन्न विवशता की स्थिति के और पास लाकर खड़ा करती है. जागरूकता का विस्तार निश्चित रूप से सम्मोहन की जड़ता को तोड़ता है.

दूसरे, फिल्म का अंत यह परिदृश्य सामने रखता है कि अंततः मानवीयता का अंकुरण कहीं न कहीं हो कर ही रहता है, और वह अत्यंत असंभव पथरीली शिला पर भी हो सकता है. कहानी के एक राजनैतिक परिवार का एक विदेश में पढ़ रहा युवक केवल एक सप्ताह के लिए घर आता है लेकिन राजनीति के कुचक्र उसे अपनी गिरफ्त में ले लेते हैं. उसकी मानवीयता छीझते छीझते समाप्त हो जाती है उसके हाथ खून से रंग जाते हैं और वह विदेश में प्रतीक्षारत अपनी प्रेमिका को अपनी वरीयता में इतना पीछे रख देता है कि वह विस्मृति बन जाती है. एक दिन उस युवक की प्रेमिका विदेश से उसकी खोज में भारत आती है. वह भारत की समूची राजनैतिक तस्वीर को घृणा और विस्मय से देखती है और एक दिन सहसा राजनीति के कुचक्र का शिकार हो कर प्राण गवां देती है.
राजनीति के पटल पर यह एक घटना है, उसी परिवार की एक सद्य विधवा वधु चुनाव जीत कर मुख्यमंत्री बनती है लेकिन विदेश से आया वह युवक, जो अपनी सगी मां के प्रति भी राजनीति के रंग में भावच्युत हो चुका है, वह अपनी दिवंगत प्रेमिका की मां के साथ वापस विदेश लौट जाता है, कि वह उस मां की देखभाल करेगा जिसकी बेटी एक छद्म सपने के पीछे उसे अकेला छोड़ कर चली गयी.

उस युवक का, राजनीति की दुनिया को परे छोड़ कर चले जाना यह दिलासा देता है कि राजनीति के जबड़े इतने जबर अब भी नहीं हैं कि वह इंसान के साथ इंसानियत को भी निगल जाएं. यह भी प्रकाश झा का एक रचनात्मक सन्देश है.

लेकिन क्या इस सन्देश भर से भीतर के आर्तनाद को अनसुना किया जा सकता है..?

वह,
जिनके हाथ में हमारा भविष्य है...

तीन कविता बिम्ब.
एक
उन्होंने
चिड़िया को उठा कर
अपनी हथेली पर रख लिया

उन्होंने
टेढ़ी की अपनी हथेली
पंख
अगर कटे न होते उस चिड़िया के
तो वह भला
उनके हाथ आती कैसे
चिड़िया
फड़फड़ा कर ज़मीन पर गिर पड़ी.

उन्होंने
डिबिया से निकाल कर
खैनी चूना
अपनी हथेली पर डाला
मला उसे अपने अंगूठे से
और फांक कर मगन हो गए

अब
वह फिर उठा लेंगे
ज़मीन से चिड़िया
रख लेंगे
अपनी हथेली पर
चिड़िया की नर्म देह बेहद कोमल है
वह चिड़िया देश है.

दो
उन्होंने
बगीचे से एक फूल तोड़ा
और फूल
तत्काल चाकू में बदल गया

उनके पास
ढेरों हैं चाकू
एक से एक धारदार
पैने
और तेज़
लेकिन उन्हें चाहिए था
ऐसा एक ख़ास
जो फूल ऐसा दिखे.

उन्होंने
उस फूल चाकू को देखा
और
मेज़ पर रख दिया

अब
वह पंखुरी पंखुरी उस फूल को
छितरा कर दबा देंगे
मेज़ पर रखी हुई अपनी प्रिय किताब में
वह किताब
इस देश का संविधान है
और उतना ही लचीला है
जितना कि फूल.

तीन
उन्होंने
गहरी सांस खींच कर
अपने दोनों हाथ जोड़ लिए
मूंद लिए श्रद्धापूर्वक
अपने दोनों नेत्र

अब
दो मिनट बाद ही
वह लौटेंगे वर्तमान में
अभी कहाँ है
उनके पैरों तले धरती
वह
उठे हुए हैं.

लोकतंत्र की ह्त्या करनें के बाद
दो मिनट का मौन
उनका सहज व्यवहार है
वह हाथ जोड़े खड़े हैं
मुंदे है उनके दोनों नेत्र.

हत्याबोध के उबरने के बाद
अब वह
सहज हो रहे हैं.